अरे हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था


अरे हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था.
मेरी हड्डी वहाँ टूटी, जहाँ हॉस्पिटल बन्द था.
मुझे डॉक्टरों ने उठाया, नर्सों में कहाँ दम था.
मुझे जिस बेड पर लेटाया, उसके नीचे बम था


विक्रमसिंह नेगी
न रास्ता सुझाई देता है,
न मंजिल दिखाई देती है,
न लफ्ज़ जुबां पर आते हैं,
न धड़कन सुनाई देती है,
एक अजीब सी कैफियत ने
आन घेरा है मुझे,
की हर सूरत में,
तेरी सूरत दिखाई देती है..

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